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क्या मीडिया में आपातकाल?



ये कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी की जनता की आवाज़
को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कैसे दबा रही है या उसपे दवाब है।पर ये कहना ही होगा की बीते कुछ वर्षों में हुए घटनाक्रम और समाचारों का व्यवसायीकरण हो चुका है।बहुत बार समाचारों को दबाने का दोष केंद्र सरकार पर लगा है।पर देश और जनता के मुख्य मुद्दों को दबाने का समझौता इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जिस तरह से कर रही है इस पर उसे गोदी मीडिया के नाम से भी नवाजा गया है।
आजकल चैनलों द्वारा केंद्र सरकार के समाचारों और महिमा मंडन का मैनेजमेंट करना, जनता और सामाजिक मुद्दों को समाचारों से गायब कर देना , अन्य राष्ट्रीय राजनैतिक पार्टियों के कार्यक्रमों को अपने चैनल पर नहीं चलाना और उन्हें नजरअंदाज करना काफी वर्षों से चल रहा है , आम आदमी और दर्शकों को तो ये पता भी नहीं हैं की उन्हें क्या और क्यों दिखाया जा रहा है। कुछ बुद्धिजीवियों द्वारा ये दर्शन भी समय समय पर करवाया गया है की इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा ऐसा और वैसा किया जा रहा है पर मीडिया है की उसने लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का ही पूंजीपतियों और सत्तानाशीन लोगों से मिलकर निकाला निकाल दिया है।जब कुछ 
बुद्धिजीवियों ने इसका विकल्प सोशल मीडिया के रूप में खोजा तो आज आपातकाल के बादल उस पर भी मंडरा रहे हैं क्योंकि जो इस मीडिया को अपने मुताबिक चलाने का हर संभव प्रयास कर चुके हैं , उनकी नजर अब अपने आगामी लक्ष्यों को लेकर सोशल मीडिया को पूर्ण रूप से नियंत्रण में लेने की है।
यही वजह है की फेसबुक और व्हाट्सएप के बाद आज ट्विटर पर नंबर एक या यूं कहे की प्रथम स्थान पर ट्रेंड कर रहे देश के प्रथम मुद्दे बेरोजगारी की गूंज आज किसी चैनल पर नहीं है।बल्कि स्वयं ट्विटर जो कहीं न कहीं केंद्र सरकार के खिलाफ बेरोजगारी के मुद्दे # मोदी_जॉब _दो
को पहले स्थान पर ट्रेंड करवा रहा है उसके डाटा की कितने लोगों ने शेयर करवा दिया है , कितने ट्वीट हो चुके है , संख्या ही ट्विटर से गायब है।सवाल उठता है की इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया के लगे हुए आपातकाल के बाद अब सोशल मीडिया का नंबर है या उस पर भी नियंत्रण लग चुका है? 





 

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